गुरुवार, 4 जून 2015

आत्‍मा की यात्रा

ब्रह्माण्‍ड में असंख्‍य अतृप्‍त आत्‍माएं मुक्ति की तलाश में भटक रही हैं। समस्‍त इच्‍छाओं की पूर्ति करते हुए ये आत्‍माएं मुक्‍त होना चाहती हैं। हर आत्‍मा की मुक्ति के मार्ग अलग-अलग होते हैं। कोई भोग के रास्‍ते इस मार्ग पर चलता है, तो कोई ज्ञान प्राप्‍त कर जन्‍म-मृत्‍यु के बंधन से मुक्‍त होना चाहती है। हर आत्‍मा तरह-तरह की इच्‍छाओं की पूर्ति करती हुई सांसारिक बंधनों से मुक्‍त होना चाहती है। जब जीवन-मृत्‍यु की उसकी यात्रा पूरी हो जाती है तब वह मुक्‍त होकर दूसरों की मुक्ति में मदद करती है। उस समय वह गुरु की भूमिका में होती है।
हर आत्‍मा की अपनी-अपनी इच्‍छा होती है और इसकी पूर्ति के लिए उसे शरीर की आवश्‍यकता पड़ती है, क्‍योंकि बिना देह के वह मुक्ति के मार्ग पर चल ही नहीं सकती। इसलिए उन्‍हें एक अदद शरीर की तलाश रहती है। शरीर धारण करने से पहले उसने क्‍या-क्‍या किया है उसका ब्‍लूप्रिंट उसके पास होता है। नए शरीर को पाने से पहले ही उनके लक्ष्‍य का निर्धारण हो जाता है। यानी नए जन्‍म में उसे क्‍या करना है इसकी भूमिका पहले ही तय हो जाती है। नए शरीर को प्राप्‍त करने के साथ ही वह पुराने अनुभव के आधार पर नए सफर की ओर उन्‍मुख होती है। इसलिए अक्‍सर हम देखते-सुनते हैं कि जन्‍म लेने के बाद ही किसी विशेष बच्‍चे में विलक्षण गुण दिखने लगते हैं।
हक़ीक़त तो यह भी है कि मुक्‍ित मार्ग पर सफ़र की अपनी योजनाओं को लेकर आत्‍माओं में मिश्रित अनुभव होते हैं। अपने लक्ष्‍य को लेकर वे उत्‍साहित होती हैं। इसके लिए उन्‍हें तैयारियां करनी पड़ती हैं। कुल मिलाकर लक्ष्‍य को पाने के लिए आत्‍माएं अधीर होती हैं, लेकिन पूर्व जन्‍म में अर्जित ज्ञान या अनुभव पर वह दोबारा मगज़मारी नहीं करतीं। यानी नया जन्‍म, नया ज्ञान, नया रास्‍ता और नया लक्ष्‍य उनका मक़सद होता है। उन्‍हें मालूम होता है कि नए सफ़र में माता-पिता (जिस परिवार में जन्‍म हुआ) और गुरु  उनकी मदद करेंगे। उनकी इच्‍छाओं की पूर्ति करेंगे। यह सब सुनिश्ति होने के बाद ही आत्‍मा नए शरीर को धारण करती है। इसलिए ऐसे घर की तलाश में, जहां उन्‍हें जन्‍म लेना है, कई आत्‍माओं को लंबे समय तक इंतज़ार करना पड़ता है। पुराना शरीर त्‍यागने के तुरंत बाद नया शरीर विरले को ही मिलता है।
आत्‍मा को यह मालूम होता है कि उसे अपना लक्ष्‍य आसानी से हासिल नहीं होगा। इसके लिए उसे कई बाधाओं का सामना करना पड़ेगा। लेकिन इनमें से कई बाधाओं को वह अपने पुराने अनुभव से आसान भी बना लेती हैं। कहने का मतलब यह है कि नए जन्‍म में वह पुरानी गलतियां नहीं दोहरातीं। इसमें गुरु उसकी मदद करते हैं।
हमारे मन में अक्‍सर तरह तरह के सवाल उठते हैं। तब हम उनके जवाब के लिए इधर-उधर भटकते हैं। एक समर्थ गुरु की तलाश करते हैं जो उन सवालों के जवाब देने में सक्षम हो। तब गुरु बताते हैं कि व्‍यक्ति को आगे क्‍या करना है। यानी बाधाओं से उबरने में आत्‍मा विशिष्‍ट आत्‍मा यानी गुरु का मार्गदर्शन हासिल करती है।

एक सच यह भी है कि जन्‍म लेने के तुरंत बाद आत्‍माएं अपने तय लक्ष्‍य की ओर भागने नहीं लगती हैं, क्‍योंकि लंबे समय तक भटकने और इंतज़ार करने के कारण उसकी स्‍मृति धूमिल पड़ जाती है। धीरे-धीरे जब उसे बीती बातें याद आती हैं और उसे आभास होने लगता है कि उसे क्‍या करना है और किस ओर जाना है तब वह चौकन्‍नी हो जाती है। किशोरावस्‍था में आत्‍मा ख़ासतौर से सचेत रहती है, ताकि वह लक्ष्‍य से भटक न जाए।
मुक्ति की इच्‍छा रखने वाली आत्‍माएं व्‍यर्थ के कार्यों में अपना समय नष्‍ट नहीं करतीं। इसलिए पुरानी गलतियों की पुनरावृत्ति से बचती हैं। उन्‍हें यह विश्‍वास होता है कि उनके गार्जियन एंजेल हमेशा उनकी मदद करेंगे, उनकी रक्षा करेंगे। उनकी सहयोगी आत्‍माएं भी उन्‍हें अकेला नहीं छोड़ेंगी। इसलिए नए जन्‍म में ऐसी आत्‍माओं को उनकी सहयोगी आत्‍माएं उन्‍हें लक्ष्‍य की ओर धकेलती हैं, उन्‍हें प्रेरित करती हैं।
मान लिया जाए कि इस जीवन में अगर कोई आत्‍मा किसी के पुत्र-पुत्री, पति-पत्‍नी, भाई-बहन, मां-बाप आदि के रूप में है तो ज़रूरी नहीं कि अगले जन्‍म में भी वह इसी भूमिका में हो। हर जन्‍म में भूमिका बदलती रहती है और यही अनुभव वह साथ लेकर चलती हैं।
इस संदर्भ में एक पुरातन कथा प्रचलित है। अभिमन्‍यु जब गर्भ में था तो अर्जुन नित्‍य अपनी पत्‍नी से वीरता और पराक्रम की बातें किया करते थे। उनकी तीव्र इच्‍छा थी कि उनका पुत्र निहायत पराक्रमी हो और हर तरह के युद्ध में पारंगत हो। इसलिए उन्‍होंने अपनी पत्‍नी को चक्रव्‍यूह भेदने की प्रक्रिया बताई थी ताकि गर्भस्‍थ शिशु उसे सुन सके। जन्‍म के बाद अभिमन्‍यु ने चक्रव्‍यूह भेदा, लेकिन उसमें से वह निकल नहीं पाया और वीरगति को प्राप्‍त हुआ। इसका कारण यह था कि अर्जुन ने अपनी पत्‍नी को चक्रव्‍यूह से निकलने का तरीका बताया ही नहीं था।
इस कथा के जि़क्र का मतलब यह है कि जब गर्भ तय हो जाता है तब आत्‍मा उसमें प्रवेश करती है। गर्भावस्‍था के दौरान शिशु आसपास के माहौल, खासकर अपने भावी माता-पिता के विचारों और आसपास के वातावरण से अवगत होता रहता है। उसका जो रास्‍ता तय होता है उसके विषय में माता-पिता और आसपास के माहौल से उसे जानकारी मिलती रहती है।
आत्‍माएं भी कभी-कभी भ्रमित हो जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्‍योंकि पूर्व की स्‍मृति धूमिल पड़ चुकी होती है और उन्‍हें कुछ याद नहीं रहता। ऐसी स्थिति में उसे कन्‍फ्यूजन हो जाता है कि उसे करना क्‍या है। ऐसी स्थिति में वह जिन सहयोगी आत्‍मा के साथ शरीर धारण करने के पहले ब्रह्माण्‍ड में विचरण करती रहती हैं, वे सहयोगी उसका मार्गदर्शन करते हैं। नए जन्‍म में इस तरह सहयोग पाकर वह अपने तय मार्ग की ओर चल पड़ती है। एक समय के बाद जब उसे यह अहसास होता है कि शरीर उसकी राह की बाधा बन रही है तब वह एक तरह से संकुचित हो जाती है और शरीर छोड़ने की जद्दोजहद में पड़ जाती है। कुल मिलाकर मनुष्‍य की 84 लाख योनियां बताई गई हैं। लेकिन आत्‍मा को हर बार मनुष्‍य के रूप में ही शरीर नहीं मिलता। उसे शरीर प्राप्ति के सिर्फ तीन अवसर ही मिलते हैं। इसके बाद भी यदि वह मुक्‍त नहीं हो पाती, तब उसे अन्‍य रूपों में जन्‍म लेना पड़ता है। इस प्रकार यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें