मंगलवार, 3 मई 2016

ऊर्जा दिमाग की बत्‍ती भी बुझा सकती है!

7 अक्‍तूबर, 2014 को मैं अपने मित्र के साथ मयूर विहार में एक सज्‍जन के घर गया। वे मेरे मित्र के परिचित हैं। महाशय अच्‍छे पद पर तैनात हैं। उनका बेटा पुणे में मर्चेंट नेवी की पढ़ाई कर रहा था। किसी बात पर एक दिन उसने अपने सहपाठी और रूम पार्टनर को पीट दिया तो संस्‍थान प्रबंधन ने दण्‍ड स्‍वरूप उसे कुछ समय के लिए घर भेज दिया। साथ ही, कहा कि किसी मनोचिकित्‍सक से उसकी काउंसलिंग कराने के बाद ही दस्‍तावेजों के साथ उसे दोबारा भेजें। बेटे के भविष्‍य को लेकर उसके माता पिता बहुत चिंतित थे। मुझे ख़ासतौर से उनके पास ले जाया गया था।
हम सभी एक हॉल में बैठे थे। मैं एक सोफे पर, मेरी बायीं तरफ मित्र और उनके सामने सज्‍जन। सज्‍जन की दायीं ओर प्‍लास्टिक की कुर्सी पर 20 साल का उनका बेटा, उसकी दायीं तरफ यानी सज्‍जन के ठीक सामने उनकी श्रीमति और उनकी दायीं तरफ अर्थात् मेरे मित्र के बायी ओर बिल्‍कुल बगल में उनकी बेटी। सज्‍जन कभी तेलुगु तो कभी अंग्रेजी में बात कर रहे थे। सभी बातों में मशगूल थे और मैं उस लड़के को देख रहा था। लड़का मुझे थोड़ा अलग लगा। सभी बातचीत में व्‍यस्‍त थे। तभी मैंने कहा- लड़का मानसिक तौर पर शांत नहीं है। इसका दिमाग अति सक्रिय है। यानी रेस्‍टलेस माइंड। इतना सुनने के बाद लड़का जो आराम से टेक लगा कर बैठा हुआ था...एकदम से जैसे उसमें स्‍फूर्ति आ गई और वह सीधे होकर बैठ गया। जैसे फिल्‍म में कोई रोमांचक दृश्‍य आने वाला हो। मैंने आगे कहा, इसकी नींद कभी पूरी नहीं होती होगी। चूंकि इसका दिमाग हर समय कुछ न कुछ सोचता रहता है, इसलिए जब भी सो कर उठता होगा, उसे ताज़गी नहीं महसूस होती होगी। अब बच्‍चा पूरी तरह भौचक इलाहाबादी टाइप मुझे देखने लगा। उसे देखकर लग रहा था कि अपने बारे में किसी अनजान व्‍यक्ति से वह जो कुछ सुन रहा है, वह क़तई ग़लत नहीं। आश्‍चर्य होना लाजि़मी था। कुछ समय पहले तक इस लड़के के लिए मैं किसी ऐरे गैरे से ज्‍यादा नहीं था। अब तक जो मुझे संशय भरी निगाहों से देख रहा था, अब उसकी निगाह में विस्‍मय के भाव स्‍पष्‍ट झलक रहे थे। मैंने उसे इशारे से अपने पास बुलाया। कमरे में अब पूरी तरह सन्‍नाटे का साम्राज्‍य स्‍थापित हो चुका था। बच्‍चे ने एक पल की भी देरी नहीं की और उठकर मेरे पास आ गया। मैंने अपने सोफे दायीं ओर एक के ऊपर एक करके रखी हुई प्‍लास्टि की सफेद कुर्सी पर बैठने को कहा। लड़के ने उसमें से एक कुर्सी हटाई और बैठ गया। मैं सोफे से उठा और लडके के सामने वाली प्‍लास्टिक की सफेद कुर्सी पर बैठ गया। मैंने उसे आराम से बैठने को कहा। फिर कुछ देर तक उसे देखता रहा। मुझे इसका बिल्‍कुल भी अहसास नहीं हुआ कि इन सब में कितना वक्‍त़ लगा, क्‍योंकि उस हॉल में अब कोई नहीं था। ध्‍यान की अवस्‍था ही ऐसी होती है। मुझे पता ही नहीं चला कि लोग कब उठकर वहां से चले गए। यह सोचकर कि मेरे कार्य में कोई व्‍यवधान न हो। सभी दूसरे कमरे में चले गए थे।
मैं उस बच्‍चे को जो कहता, वह उसे करता। जैसे वह सम्‍मोहन की अवस्‍था में हो। जितनी देर में मैंने उसे जाना, उसके मुताबिक उस बच्‍चे से उसकी इच्‍छा के विरूद्ध कोई भी कुछ नहीं करा सकता। बाद में उसे माता-पिता ने भी यह बात मानी कि मैं बिल्‍कुल सही कह रहा हूं। बालक मेरी आज्ञा का अक्षरश: पालन करता जा रहा था। इसके बाद मैं खड़ा हो गया। कुछ पल ध्‍यान लगाने के बाद उस पर दोनों हाथों से ऊर्जा फेंकने लगा। मेरी आँखें बंद थीं। अमूमन मैं जब किसी की हीलिंग करता हूं तो उसे शांत और आराम की मुद्रा में बैठकर ऑंखें बंद करने को कहता हूं। लेकिन यहां उल्‍टा था। मैंने उस बच्‍चे को ऐसा करने को इसलिए नहीं कहा कि वह ऐसा करेगा ही नहीं। यह बच्‍चा आध्‍यात्मिक रूप से मुझे जागृत लगा। उसके मन में एेसे कई सवाल उमड़ते हैं जिनके जवाब न तो उसके पास हैं और न ही वह किसी से पूछता है। मुझे तो उसे कुछ अहसास कराना था जिससे कि वह मेरी बात मानने की स्थिति में हो। क्‍योंकि मॉं-बाप और शिक्षक तो पहले ही हाथ खड़े कर चुके थे। मैंने उस पर अंधाधुंध जितनी ऊर्जा फेंकी, इससे पहले उतना क्‍या उसका दस फीसदी भी किसी को नहीं दिया होगा। मैं अपने काम में खोया हुआ था। इस बीच मुझे अहसास हुआ, जैसे लड़का विस्‍मय से मुझे देख रहा है। देखा तो वाकई वह विस्‍मय भरी निगाह से मुझे देख रहा था। उसे लगा यह पागल आदमी पता नहीं क्‍या कर रहा है, वगैरह वगैरह।
अब मैं उसके सामने बैठा था। मैंने पूछा- कुछ महसूस हो रहा है?
- हाँ
- क्‍या?
-‍ ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने बॉंध दिया है मुझे।
- और क्‍या लग रहा है?
- जैसे सैकड़ों चीटियां हाथ-पैर पर दौड़ रही हैं।
मैंने कहा- दिमाग़ काम कर रहा है?
- नहीं
- कुछ सोचने की कोशिश करो...
- नहीं सोचा जा रहा। ... बिल्‍कुल खाली है। मेमरी लॉस तो नहीं हुई न?
मैं हँसा। घबराओ मत। मेमरी सही सलामत है, बस बकवास चीज़ें डिलीट हो गईं हैं।
- ठीक है। अब खड़े हो जाओ।
लड़का खड़ा हो गया। मैंने कहा- चल सकते हो?
उसने कहा- मैं तो खड़ा भी नहीं हो पा रहा।
मैं जोर से हँसा। अब विस्‍मय और भय का मिलाजुला भाव उसके चेहरे पर उभर कर आ रहा था। मैंने कहा- वहाँ जब कुर्सी पर बैठे हुए थे तब तो मुझे पोपट लाल समझ रहे थे। अब क्‍या हुआ? उसने झेंपते हुए कहा- नहीं...यू आर ग्रेट!
- बड़ी जल्‍दी विचार बदल गए तुम्‍हारे!
-अापने मेरे साथ क्‍या किया है? लगभग मुस्‍कुराते हुए मासूमियत से उसने पूछा।
- बेटा जादू किया है? अब इसी तरह रहो।
उसने कहा- मुझे अच्‍छा लग रहा है। लेकिन मैं पहले की तरह होना चाहता हूं।
मैंने कहा- डरो मत। थोड़ी देर में पहले जैसे ही हो जाओगे। अभी तुम्‍हारे पर इतनी ऊर्जा है कि तुम खु़द को ही सम्‍भाल नहीं पाओगे। अभी सबकुछ अजीब सा लगेगा तुम्‍हें।
- हां, वैसा ही लग रहा है.... पर अच्‍छा लग रहा है। अन्‍दर शांति है। खुशी भी महसूस हो रही है।
मैंने जब उसके बारे में उसे और बताया तो वह एक आदर्श बच्‍चे की तरह व्‍यवहार करने लगा।
इससे ज्‍यादा और कुछ नहीं लिखूँगा, क्‍योंकि वह न तो बच्‍चे और न ही उसके माता-पिता के लिए भी ठीक नहीं। अस्‍तु उस बच्‍चे में आध्‍यात्म के प्रति रुचि है। उसे सही मार्गदर्शन मिले तो वह बहुत कम समय में काफी प्रगति कर सकता है। वह हर किसी को महत्‍व नहीं देता। शुरू में मुझे भी ऐंवें ही समझा, लेकिन बाद में जब उसे अहसास हुआ कि नहीं... यहां मामला उसकी कल्‍पना से भी परे है तो समर्पण कर दिया।
बाद में मैंने बच्‍चे और उसके पिता से कहा कि जब भी तुम मुझसे बात करना चाहो, फोन कर सकते हो। तुम्‍हारी मदद करूँगा। उस समय तो दोनों बाप-बेटों ने हॉं-हॉं कहा, लेकिन उस दिन के बाद एक बार भी बच्‍चे के बारे में नहीं बताया। मसलन उसे समय पर नींद आने लगी। उसका मन शांत है। पेट की गड़बड़ी नहीं है। गुस्‍से पर फ़र्क़ पड़ा है। यह भ्‍ाी नहीं बताया कि मैंने कहा था कि वह हॉस्‍टल के उसी कमरे में दोबारा जाएगा, लेकिन उसमें उसका रूम पार्टनर नहीं होगा। वह अपने मन से यह डर निकाल दे कि उसे हॉस्‍टल से निकाल दिया जाएगा। जब मैंने यह शिकायत मित्र के पिता जी से की तब सज्‍जन ने एक दिन फ़ोन करके बताया कि उनका बेटा हॉस्‍टल चला गया है। दूसरे लड़के को अलग कमरे में शिफ्ट कर दिया गया है। जब उन्‍होंने फोन किया तो मैंने कह दिया- मैं ऐसे लोगों की मदद नहीं करता जो फीडबैक देना भी मुनासिब नहीं समझते। उसके बाद मेरी उनसे कभ्‍ाी बात नहीं हुई। कभी-कभी सोचता हूं कि बच्‍चे से बात करूँ, लेकिन यह सोचकर नहीं करता कि कहीं लोग यह न सोच लें कि मैं उनके बच्‍चे को साधु-संन्‍यासी बना दूँगा... जैसे कि मैं लकड़ी सुँघा कर बहलाकर ले जाने वाला कोई औघड़ या साधु हूं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें